खबर की प्राथमिकता होती है सर्वोपरि,पर॑तु मलाई खाते है अखबार मालिक।
गांव देहात और शहर में काम करे आम पत्रकारों के
देश और प्रदेश के अरबपति अखबारों को दो दो तीन तीन पेज का विज्ञापन बांट रही मप्र सरकार एक आम पत्रकार की जिंदगी की खैरखबर क्यों नहीं लेती। पुलिस और हेल्थ की तरह पत्रकार समाज भी समाज को अति आवश्यक सेवाएं दे रहा है।
24 घंटों सातों दिन फोन पर फंसा पत्रकार अपनी व्यक्तिगत जिंदगी को कितना समय दे पाते हैं। अविवाहित पत्रकारों ने कितनी बार अपने मां बाप को तसल्ली से समय दिया है। कितनी दफा एक फुलटाइम पत्रकार अपनी बीमार मां को अस्पताल में ले जाकर जांच उपचार के लिए दो से चार घंटे लगातार समय दे पाता है। शादी के बाद पत्रकारों के वैवाहिक जीवन में समय को लेकर क्या दुविधाएं और उलझनें पैदा होती हैं उसे पत्रकार बिरादरी और उनके घर परिवार वाले ही जानते हैं। पत्रकार बिरादरी के बच्चे भी स्वभाविक स्नेह से समयाभाव के कारण वंचित रहते हैं।

पापा जब सोए रहते हैं तो बच्चे स्कूल निकल लेते हैं। दोपहर में बच्चों और बीबी को पापा मिल जाएं तो मोबाइल सौतन बना रहता है। एक पत्रकार दिन भर दुनिया जहान के फोन उठा उठाकर क्या गजब महसूस करता है ये तो भुगतभोगी ही बता सकते हैं। शाम से रात को आने तक भी बीबी, बच्चों से पत्रकारों का आनंदमय संवाद बिरले ही हो पाता है। इस भागमभाग में जिन वरिष्ठ और कनिष्ठों ने इसमें सामंजस्य बनाया है वे निश्चित रुप से बधाई और अनुकरण के पात्र हैं लेकिन बहुमत सिस्टम फेल वालों का ही है।